शुक्रवार, ३१ डिसेंबर, २०२१

अर्धरथी - २

 फिर जब आंखे मिचमिचाई

प्रखर तेज की ऊर्जा मैंने पाई

लगा जैसे हरि ने दर्शन दिया

पर हरिणी ने स्वरूप विस्तार किया

होठों से पहुंची आंखों तक लाली

देवी ने मुझे चेतावनी दे डाली


"भूलोक अतल पाताल देख

मेरा स्वरूप विक्राल देख ।।

जो मुझे ताड़ना चाहे मन

फेंक दूं उसे अनंत गगन ।।

सौभाग्य न हर दिन सोता है

देखो आगे क्या होता है ।।


ओ मेरे महाशय

समझ रही हूं तुम्हारा आशय

क्या किसकी लाइन लगेगी सोचोगे

पर खुद लाइन पर कब पहुँचोगे


रे डालर में इतना कमाते हो

फिर भी लेस इज मोर ही रटते हो

बोलो, मेमोरियल डे की शापिंग करवाओगे

की खुद का मेमोरियल बनवाओगे ?


तो लो मैं भी अब जाती हूं

अंतिम संकल्प सुनाती हूं

याचना नही अभी रण होगा

अब से जो चाहे मेरा मन होगा"


इतने में जब वाग्बाणों की झोली हुई खाली

मैने अपनी श्रृंगार की टोकरी की खाली


"ओ मेरे प्रिया, मेरी भागवान

जानता है सच मेरा भगवान

धन्य तुम्हारी ममता और माया है

बड़ी शीतलसी तुम्हारी छाया है

तुम्ही हो सविता, चंदा तुम्ही हो

तुम्ही हो मोहिनी, रंभा तुम्ही हो

भूलता नहीं हूं, है मेरी स्मृति

कितनी सुंदर है तुम्हारी प्रीति"


जाग रही मेरी भी संवेदना

पर क्यों अचानक कानों पर वेदना?

और गरज के साथ आई ध्वनी

लग रही जैसे कोई आकाशवाणी


"अच्छा? कसम अपनें आंखों के तारों की

तुम्हारे आंखों के सामने भी नजर आएंगे

'उस' कर्ण से इस कर्ण तक

ध्यान तुम्हारा ले आयेंगे"

...

...

गूंऽऽऽऽज

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